Monday, 23 November 2015

मयखाने में आ गए हम

मैं रहा न मैं तुम रहे न तुम,
क्यूँ हुए अलग गर बेवफ़ा नहीं हम
है रीत वही, है हर मौसम भी वही ,
क्यूँ रहे ना वो लोग ना रहे वो सनम
मैं हो रहा बर्बाद ये तकदीर मेरी है,
तू मुझे ना सोचना तुझको मेरी कसम
लैला मजनूं, हीर राँझा नसीब की बातें हैं,
तुझे मिली डोली मुझे मिला जाम,
मयखाने में आ गए हम, ऐ साकी,
वो मय पिला वफ़ा हो जिसका नाम
Parvesh Kumar 


Sunday, 22 November 2015

तूफ़ान जो आए राहो में

तूफ़ान जो आए राहो में उनसे
लड़ने का मुझमे हौसला है
जिंदगी के पेड़ की सबसे ऊँची
टहनी पर मेरा घोसला है
अभी और ऊपर मुझे जाना है,
सारे आसमान को पाना है
जहाँ ना पहुँचा अब तक कोई
वही मंजिल मेरा ठिकाना है
कोई कहता है मुझे पागल
कोई कहता है दीवाना है
मंजिल पाने की ललक है मुझमे
बस इतना सा मेरा फ़साना है
पैदा होना और मर जाना
ये तो दस्तूर-ए-ज़माना है,
लेकिन मुझे तो पैर ज़मीन पर रखकर
हवाओं में उड़ते हुए जाना है


Parvesh Kumar 

हमसे हमारा बचपन छीनने जब जवानी आती है

हमसे हमारा बचपन छीनने जब जवानी आती है,
सिर्फ यादें छोड़ जाती है सारी खुशियाँ ले जाती है
नौकरी पाने की लालसा जब हमें सताने लगती है
,
ज़माने भर की चिंताएं चेहरे पर नजर आने लगती हैं
यारों दोस्तों के संग महफ़िल सब छूटने लग जाती है
भविष्य के बारे में सोचकर रातों में नींद टूटने लग जाती है
स्कूल में जल्दी जाकर जब पीछे के बेंच पर बैठते थे,
छोटे छोटे बेर खाकर दोस्तों पर बीज फेंकते थे
याद करके उन बातों को दिल भर जाता है,
नाम मोबाइल में सबके है पर
डायल करने का वक़्त नहीं मिल पाता है.
कोई इंजिनियर बनना चाहता है कोई बनना चाहता है डॉक्टर,
कोई घर के पास नौकरी करता है कोई करता है मीलों जाकर
कभी आपस में हँसते खेलते थे आज आपस में ही होड़ लगी है,
एक दुसरे से आगे निकलने की देखो कैसी दौड़ लगी है
आँखें बंद करते ही अब गांधी की सूरत दिखती है,
जब लाख कोशिश करने पर भी छोटी सी नौकरी मिलती है
बढती भ्रष्टाचारी को देखकर रोज इच्छाएँ बढती जाती है,
पर बेरोजगारी की महामारी में तनख्वाह
                       घर का खर्चा ही चला पाती है
नई-नई जिम्मेदारियों का बोझ रोज बढ़ता ही जाता है
दोस्तों और रिश्तेदारों से अब संपर्क खत्म सा हो जाता है
जब कच्छे में खेला करते थे वो अच्छे थे दिन बचपन के,
अब पैंतीस की उम्र मे हम लगने लगें हैं पचपन के


Parvesh Kumar