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Thursday 21 January 2016

शुक्रिया दोस्त ! शुक्रिया सपने !



        सूरज आग उगल रहा था | दूर तक खाली मैदान, कहीं कुछ नहीं, बस उस मैदान के बीच में, मैं और एक सफ़ेद रंग का घोड़ा | घोड़ा ना जाने कहाँ से आया और मेरे पास आकर खड़ा हो गया | मुझे तो घुड़सवारी आती भी ना थी | हो सकता है, उसे उस खाली मैदान में मेरे सिवा कोई दिखाई नहीं दिया होगा | बस फिर क्या था, जहाँ मैं जाता मेरे साथ हो लेता | मैंने रुक कर उसकी तरफ देखा | शायद मेरी तरह वो भी अपने अंदर के खालीपन और तन्हाई के राक्षस से लड़ रहा था, तभी तो वहाँ पहुँच गया था |
      अचानक, सूरज ने अपनी किरनें हम दोनों पर केन्द्रित कर दी, जैसे अँधेरे कमरे में टोर्च की रौशनी से कुछ ढूंढने के लिए की जाती है | मगर वो हमारे अन्दर क्या ढूंढ रहा था, ये क्या ! उसकी आग हमारे थोड़े से गीले गले को भी सुखाने लगी | मेरी और घोड़े की नज़रें मिली, और हम दोनों, मैं उसके ऊपर, सूरज को पीठ दिखा कर भाग खड़े हुए | हम बेतहाशा भागे जा रहे थे, शायद पानी की तालाश में, शायद जंगल की तालाश में, तन्हाई के राक्षस से दूर |
      अचानक, मैदान ख़त्म हो गया, सामने से पानी का समुंद्र बहा चला आ रहा था | हम दोनों परेशान हुए, मैदान से भाग कर आये तो रुसवाई के समुंद्र ने घेर लिया | ये घोड़ा तो बड़ा बेरहम निकला, मुझे पटक कर अकेला भाग खड़ा हुआ और उसके हिस्से का मैदान और समुंद्र भी मेरे हिस्से आ गया |
      मैं कुछ सोचता उससे पहले प्यास से मेरे प्राण सूखने लग गए, मेरी चेतना जाती रही | मैं बेहोश, समुंद्र के साथ बहता रहा | वो कभी मुझे जोर का धक्का मारता, कभी हवा में उछाल देता | एक मैं था, जो होश में ना आता था | आख़िर, मरे हुए को कोई कब तक मारे, समुंद्र भी मुझे अकेला छोड़ कर चला गया |
      ना मैदान, ना समुंद्र, ना घोड़ा | मेरी चेतना लौटी तो मैं अकेला छोटे-छोटे, नर्म, गीले घास में पड़ा हुआ था | मुझे कोई दूर से मेरी ओर आता दिखाई दिया | उसकी आकृति धुंधली थी मगर उसके हाथ में कुछ सामान था | वो नजदीक आया, उसने मुझे सहारा देकर उठाया और अपने साथ लेकर चल दिया |
      उसका चेहरा साफ-साफ तो नहीं दिखाई दिया, मगर कोई अपना सा लगा, सो मैंने उसे कुछ नहीं कहा और उसके साथ-साथ चलता रहा | थोड़ी देर बाद उसने मुझे अपने सामान से निकालकर पानी दिया | पानी की दो बूँद मेरे अन्दर जाते ही, मेरा खाली मैदान हरा होने लगा, मेरे अन्दर का राक्षस डूबने के डर से चिल्लाने लगा | मैंने जल्दी से एक बड़ा घूँट पानी का पी लिया | मुझे साफ सा दिखने लगा | वो अपना, मुझे मेरे एक दोस्त जैसा लगा | मगर मैं उससे नाम पूछता, उसके साथ लंच करता जोकि उसके सामान में था, मुझे यकीन था कि उसमे खाना ही था, मगर उससे पहले ही सपना टूट गया | शायद वो दोस्त तुम थे ‘नवीन’ | खैर, शुक्रिया दोस्त ! शुक्रिया सपने !    
Writer  -  प्रवेश कुमार

Sunday 15 November 2015

क्या तुम्हे भी हिचकियाँ नहीं आती ?


      जितनी तकलीफ़ और तड़प इस जाड़े के मौसम से होती है उतनी तो उस बेवफा की जुदाई के वक़्त भी नहीं हुई थी | ऊपर से उसे ये गुमान कि बेवफाई उसने नहीं मैंने की है | लेकिन सच बताऊँ तो हमने अपने दिलों को अपने-अपने तरीके से समझा लिया है और एक दूसरे को हरजाई कहकर खुद का अपराधबोध कम कर लेते हैं | हम दोनों में से, दरअसल, बेवफ़ा कोई नहीं है, मैं थोड़ा बदतमीज हूँ और वो थोड़ी बददिमाग | अब हम एक दूसरे को याद नहीं करते, बस भूलने की कोशिशों में लगे रहते हैं |
      तुम्हारा तो पता नहीं कि कितना याद करती हो | ना तो मुझे कोई हिचकी ही आती है ना facebook और whatsapp पर तुम्हारा जवाब | शायद भूल ही गयी हो, थोड़ा पत्थर दिल तो तुम हो ही | क्यों ? इसमें झूठ क्या है ? तुम खुद भी तो पहले स्वीकार करती थी लेकिन जब से अलग हुई हो पुरानी बातें सब भूल गयी हो | अच्छा एक बात बताओ, क्या तुम्हे भी हिचकियाँ नहीं आती ?
      जानता हूँ, तुम यही कहना चाहती हो ना कि कभी मैं याद करूँ तो हिचकी आये | तुम्हे सच बताऊँ आज तुम्हे किस कदर भुलाने की कोशिश की है |
      सर्दियाँ शुरू होने के बाद आज पहली बार सुबह को बाहर निकला | काफी लम्बा सफ़र था और बाइक से जा रहा था | बाइक पर ठंडी हवाओं ने भीतर तक सब ठंडा कर दिया | मुझे तुम्हारी याद आई और लगा तुम कहीं आसपास हो | दिल्ली से बाहर, तुम्हारे शहर से दूर जा रहा था | लेकिन तुम बड़ी दुष्ट हो, तुम कैसे जाने देती मुझे खुद से, अपने शहर, अपनी नज़रों से दूर | तुम्हे मज़ा जो आता है मुझे तड़पते हुए देखने में |

      तुम्हारे शहर की सीमा से बाहर निकला ही था कि धुंध ने सारा दृश्य धुंधला कर दिया | मालूम नहीं अब धुंध को तुमने भेजा था या तुम खुद धुंध बन कर आई थी | मुझे तो लगता है तुम खुद ही थी | पुरे सफ़र मुझे रास्ता भुलाने की कोशिश करती रही |
      तुम ही थी मुझे यकीन है क्योंकि तुमने ओस बनकर मुझे छुआ था | तुम्हारा सपर्श अभी भी मेरी स्मृतियों में बसा हुआ है | मेरे सर, पलकों और मेरी छोटी-छोटी मूछों को तुम कैसे ओस की बूँद बनकर छू रही थी | अब तुम चुप रहो, ये मेरा सच है या जो भी हो | मुझे तुम्हारी सफाई नहीं चाहिए कि तुम नहीं थी | मुझे मालूम है तुम ही थी, बस तुम ही थी |
अच्छा एक बात बताओ, आजकल रातों में तुम्हे इतना जल्दी नींद कैसे आ जाती है | मैं तो देर रात तक करवटें बदलते रहता हूँ और सोचता हूँ कि अब करवट बदलूँगा तो बगल में तुम लेटी मिलोगी | और मुझे आगोश में भर लोगी, कभी ना अलग होने के वादे के साथ | आज की रात भी यूँ ही गुजर गयी | ना तो तुम्हे भूल पाया और ना करवट बदलने पर तुम ही मिली | लेकिन एक वादा करो, बस आख़िरी वादा | अगर मुझे कभी हिचकी आई तो मैं तुम्हे बताऊंगा और अगर तुम्हे हिचकी आई तो तुम भी मुझे facebook या Whatsapp करोगी | मुझे पता है आज तुम्हे हिचकी आई है | अब प्लीज Message कर दो | मैं Facebook पर तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ |


Writer – Parvesh Kumar 

Saturday 7 November 2015

तुम किसी बुरी लत की तरह हो

                
            तुम किसी बुरी लत की तरह हो

      तुम्हे पता है ? तुम बहुत बुरी हो, किसी बुरी लत की तरह | ना...ना, शराब नहीं, उससे भी बुरी लत | अगर मुझे पहले पता होता तुम्हारी लत इतनी बुरी होगी, तो कसम से, मैं कभी तुम्हारे पास से भी नहीं गुजरता | तुम्हे देखते ही रास्ता बदल लेता | लेकिन बचना मेरी किस्मत में शायद लिखा ही नहीं था | हाँ, हाँ, कह लो जो किया मैंने ही किया | यही तो तुम्हारी खासियत है, सबकुछ करके भी साफ़ बच निकलती हो | वो वक़्त अलग था जब तुम्हारी गलतियाँ अपने सिर लेना अच्छा लगता था | लेकिन अब मिल जाओ तो तुम्हे अपने हाथों से मार डालूँ और फ़िर खूब रोऊँ | ना, नहीं रोऊंगा, और अगर रोऊंगा भी तो मैं तुम्हे क्यों बता रहा हूँ ?

      याद है, जब पहली बार तुम्हारे कमरे पर आया तो तुमने क्या मस्त खाना बनाया था | उस दिन तुम चावल भी बासमती ‘पैकेट वाले’ लायी थी | क्या पनीर बनाया था ! बिलकुल वैसे ही जैसे बकरे को हलाल करने से पहले खिलाया जाता है | और नहीं तो क्या, बाद में भूल गयी जब शरारत करते वक़्त तुमने मेरी गर्दन पर नाख़ून मार दिए थे | जब वहाँ से खून निकलने लगा तो, तुमने अपने होंठों से मेरी गर्दन को चूम लिया था |
      बस उसी दिन से मेरे खून में तुम्हारा नशा मिल गया और मेरे शरीर में दौड़ने लगा | मेरे पूरे शरीर से तुम्हारी खुशबू आती है | तभी तो मुझे तुम्हारी लत लगी थी | तुम सच में कोई जादूगरनी हो, दूसरी दुनिया की शायद |
      मैं आज भी तुम्हे सोचता हूँ, तुम्हे याद करता हूँ मुझे पता है ये तुम भी जानती हो, क्योंकि इधर मैं अपनी कलम से कुछ लिखता हूँ उधर ये हवाएं तुम्हे सब बता देती हैं | हो तो तुम जादूगरनी ही | लेकिन ज्यादा इतराओ मत | जल्दी ही मैं तुम्हे भुला दूँगा | मैं क्यों तड़पता रहूँ, छोड़कर तो तुम गयी थी, तुम ही तो चाहती थी कि मैं तुम्हारी शर्तों पे जियूं | तुम्हारी गलती है तुमने आसमान को मुठ्ठी में बांधना चाहा, समुंद्र को समेटना चाहा |
      सोचता हूँ अपनी नस काट दूँ, और बहने दूँ खून को, के जब तक तुम्हारा नशा ना बह जाए, के जब तक तुम्हारी खुशबू है, के जब तक तुम्हारी लत है | लेकिन मुझे जीना है क्योंकि पहले तुम्हे जाना पड़ेगा | तुम्हे जाना ही पड़ेगा, ताकि मैं किसी और का हो सकूँ, ताकि मैं चैन से मरने की हिम्मत कर सकूँ, ताकि मैं थोड़ा और जी सकूँ | मैंने कोशिश भी शुरू कर दी है, जीने की | सच, मेरी एक प्रेमिका है, तुमसे खूबसूरत तुमसे अच्छी, और उसकी कोई शर्त भी नहीं है बस उसमे तुम्हारे जितना नशा नहीं है | लेकिन मुझमे है ना नशा, तुम्हारा ही सही |
      खैर, अभी तुम मरना मत, तुम्हे मेरी और उसकी शादी देखनी है, उसके बाद जो मर्जी करना | मेरी कलम में स्याही ख़त्म होने वाली है | मैं चलता हूँ, मुझे अपनी प्रेमिका को पत्र लिखना है | प्लीज तुम अभी मरना मत |


Writer – Parvesh Kumar