Sunday 21 February 2016

आस्तिक होने के लिए नास्तिक होना अनिवार्य

अभागे हैं वे जिन्होंने कभी नास्तिकता नहीं चखी, क्योंकि वे आस्तिकता का स्वाद न समझ पाएंगे।
इस जगत के बड़े से बड़े दुर्भाग्यों में से एक है कि हम प्रत्येक बच्चे को नास्तिक बनने के पहले आस्तिक बना देते हैं। वह आस्तिकता झूठी होती है, उसमें कुछ प्राण नहीं होते। वह निर्जीव होती है।
अभी बच्चे में जिज्ञासा भी नहीं जगी, अभी प्रश्न भी नहीं उठा, और हमने उधार दे दिए! बीमारी ही नहीं है, और तुमने इलाज शुरू कर दिया! तुम दवा पिलाने लगे! तुम्हारी दवा जहर बन जाएगी।
और आस्तिकता जहर बन गई है। सारी पृथ्वी आस्तिकता से पीडि़त है, नास्तिकता से नहीं। और आदमी कुछ ऐसा मूढ़ है कि एक अति से दूसरी अति पर जाने में उसे देर नहीं लगती। रूस, चीन और दूसरे कम्युनिस्ट देश दूसरी अति पर चले गए। बच्चा पैदा हुआ, और वे उसे नास्तिकता सिखाने लगते हैं।
सिखाई नास्तिकता उतनी ही थोथी होगी, जितनी सिखाई आस्तिकता।
जीवन उधार नहीं जीया जा सकता। जीवन प्रामाणिक होना चाहिए। हमें इतना धैर्य रखना चाहिए कि बच्चे पर जब जिज्ञासा अपने आप अवतरित होगी, जब वह पूछेगा, तो हम साथ देंगे। और साथ भी बहुत सोच कर देना।
साथ देने का अर्थ नहीं है कि वह पूछे और तुम उत्तर देना। प्रश्न उसका, उत्तर तुम्हारा, मेल कैसे होगा? प्रश्न उसका तो उत्तर भी उसका ही होना चाहिए, तभी तृप्ति होगी, तभी संतोष होगा, तभी बोध होगा, बुद्धत्व होगा।
तो जब बच्चे को जिज्ञासा जगे, प्रश्न उठें, संदेह के झंझावात आएं, तब माता को, पिता को, परिवार को, प्रियजनों को, शिक्षकों को सहयोग देना चाहिए–प्रश्नों के निखारने का, निखारने में, प्रश्नों पर धार रखने में। प्रश्नों पर उत्तर नहीं थोपने हैं, प्रश्नों को त्वरा देनी है, तीव्रता देनी है। प्रश्नों को ऐसी प्रगाढ़ता देनी है कि जब तक व्यक्ति उनके उत्तर स्वयं न खोज ले, चैन न पाए, विश्राम न पाए।
मेरी अपनी सूझ यही है कि जो नास्तिक होने की हिम्मत रखता है, वही कभी संन्यासी भी हो सकता है।
 ओशो

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