Monday 30 November 2015

जो भी संघर्ष से लड़ा है

मत सोच कि तेरा दुःख बड़ा है
देख ख़ुदा तेरे साथ खड़ा है,
जो भी संघर्ष से लड़ा है
वही हिमालय चोटी पे चढ़ा है
अभी तेरी कोशिश थोड़ी अधूरी है,
पर ख़ुदा को याद करना भी जरूरी है
लड़ते-लड़ते रुक मत जाना,
मुसीबतों से कभी ना घबराना
ख़ुशी से गा तू कोई तराना,
कि देखता रह जाये ज़माना.
कुछ करने की इच्छा तेरी पूरी है,
पर ख़ुदा को याद करना भी जरूरी है
चलता रह तू सीना तान
डर कर तू हार ना मान,
लड़ना ही है तेरी शान
जब तक है शारीर में जान
बस मंजिल से थोड़ी सी दूरी है,
पर ख़ुदा को याद करना भी जरूरी है
देख तेरी मंजिल आ गई,
हर मुसीबत तुझसे घबरा गई,
खुशियों की बूंदे आ गई,
एक ताकत है तुझमे समां गई.
कोशिश हुई तेरी आज पूरी है,
पर ख़ुदा को याद करना भी जरूरी है


Parvesh Kumar

जिंदा हूँ मैं अब बस कलम के वास्ते

सीधी सी इस ज़िन्दगी के टेढ़े मेढे रास्ते
ऐ ख़ुदा क्या है बस ये मेरे ही वास्ते,
झूठे लगने लग गए अब सनम के रास्ते
अब जिंदा हूँ मैं ऐ ‘कलम’ बस तेरे ही वास्ते
क्या कमी है मुझमे जो मिलती नहीं मंजिल
हर आज गुजर जाता है बनकर मेरा कल,
कोई कहता है रहने दे कोई कहता है चल
कोई कहे मुझे सयाना कोई कहे बेअकल
क्यूँ दी है ख़ुदा ने मुझे ज़िन्दगी
है नहीं जब यहाँ किसी के पास बंदगी,
मैं हूँ बेकार या दुनिया में है गन्दगी
पूछूँगा ख़ुदा से गर मुलाकात हो गई कभी
मेरी दुनिया है अलग मैं अकेला हूँ यहाँ
सब रास्तों से जुदा है मेरी मंजिल के रास्ते,
मारने से भी मैं ना मरूँगा यहाँ
क्यूंकि जिंदा हूँ मैं अब बस कलम के वास्ते


Parvesh Kumar

Sunday 29 November 2015

ये हम अपनी ग़ज़ल किसे सुना रहे हैं

मेरे जन्मदिन पर क्यूँ लोग खुशियाँ मना रहे हैं,
इतनी सी बात पर मेरी आँखों से आंसू आ रहे हैं
हर साल हो जाता है खामखाँ गम में इजाफा,
ये किस दौर में किस सिम्त हम जा रहे हैं,
होने वाली है रात अब तो घर जाओ अपने,
तुम्हारी बस्ती के अँधेरे तुम्हे बुला रहे हैं
एक भी इंसान नहीं बैठा महफ़िल में ‘प्रवेश’,
ये हम अपनी ग़ज़ल किसे सुना रहे हैं


Parvesh Kumar

जो होश में आ जाओ तो सोचना तुम

मेरी बस्ती के लोगों तुम्हे क्या हो गया है,
हो गयी सुबह फिर भी हर कोई सो रहा है
छोडो अपनी नींद निकल के देखो बाहर,
दर पर तुम्हारे कोई बेसहारा रो रहा है
तोड़ डालो अपने अपने घमंड की जंजीरें ,
हर इंसान खुद ही अपना नसीब खो रहा है
प्यार से जीने में भला तुमको तकलीफ क्या है
क्यूँ नफरत की आग में हर कोई जल रहा है
कब तक उगाते रहोगे तुम नक्सली पौधे ,
नदियाँ जम गयी अब पर्वत पिघल रहा है
जो होश में आ जाओ तो सोचना तुम,
क्यूँ “प्रवेश” इस बस्ती से आज जा रहा है
Parvesh Kumar

दिनभर बेहोश रहते हैं हम

कटते-कटते ही कटती हैं तुझसे बिछड़ के रातें,
नींद आएगी जिस दिन करूँगा तुमसे ख्वाब में बातें,
जिंदगी मुझे मेरी यूँ बोझ नहीं लगती,
गर तुम मुझे जुदाई की जायज़ कोई वजह बताते
तेरी बेवफाई के किस्से अब सुनने में आते हैं,
पहले पता चल जाता तो हम दिल ना लगते
मयखानों में अब हमारी रात गुजरती है,
दिनभर बेहोश रहते हैं हम होश में नहीं आते
हुस्ने-इश्क़ नीलम करने में मजा क्या है? “प्रवेश”
पूछूँगा उनसे गर नसीब हुई कभी मुलाकातें
Parvesh Kumar

लहरें: इश्क़ तिलिस्म

'आप गज़ब हैं मैडम जी. भोरे भोर कोई ओल्ड मौंक खोजता है का? अभी तो ठेका खुलबे नै किया होगा नै तो हम ला देते आपके लिए.'
'अरे न बाबू, क्या कहें. पीने का नहीं, चखने का मन हो रहा है. जुबान पर घुलता है उसका स्वाद. किसी पुरानी मीठी याद की तरह. एक ठो दोस्त हुआ करता था मेरा. बहुत साल पहले की बात है. बुलेट चलता था. तुम कभी मोटरसाइकिल चलाये हो?
'हाँ मैडम जी, राजदूत था हमरे बाबूजी के पास'
'अरे वाह. हम भी राजदूत ही चलाना सीखे थे पहली बार...तो रिजर्व का तो फंडा पता ही होगा तुमको.'
'हाँ मैडम जी, पेट्रोल ख़त्म होने पर भी जरा सा एक्स्ट्रा टंकी में जो रहता है...वोही न'
'हाँ हाँ...वोही...तो ऊ दोस्त हमरा रिजर्व में रहता था...माने...बहुत गम हो रहा...दिल टूटा हुआ है...किसी से बतियाने का मन कर रहा है...वैसेही...उसके लिए इश्क़ बॉर्डरलाइन पर हुआ करता था. हम ज़ब्त करके रखते थे खुद को...सब से इश्क़ ही हो जाएगा तो रोयेंगे कहाँ जा कर?'
'ऊ तो बात है...लेकिन आपका लड़की लोगन से कहियो दोस्ती नै था क्या?'

पूरा पढने के लिए क्लिक करें :- 

लहरें: इश्क़ तिलिस्म

Friday 27 November 2015

ये तेरा और मेरा रिश्ता

तेरा सफ़र मेरा सफ़र
तू कितना खुबसूरत है हमसफ़र,
मुझपर डाल तू इक नजर
तेरा भी दिल चाहे अगर
मैं करना चाहुँ तुझसे प्यार
गर मुझपे हो ऐतबार,
मैं करना चाहूँ इश्क़-ए-करार
दिल मेरा है बेक़रार
प्यार है तो सब है सही
प्यार नहीं तो तू नहीं, मैं नहीं,
और ये सारा जहाँ नहीं
महापुरुषों ने ये बात कही |
इंतजार करूँ मैं कितना तेरा
मेरा सबकुछ है अब तेरा,
मुझे नहीं अब शुकून कहीं
तेरे दिल में चाहूँ मैं बसेरा
अब तक चुप क्यूँ है तू
अब तेरा मेरा ना कर तू,
अब तेरा मेरा है हमारा
मेरे जैसा ना पायेगी तू
ख़ुदा ने मुझको भेजा है
ऐसे ही कोई किसी से नहीं मिलता,
फूल और खुशबू जैसा है
ये तेरा और मेरा रिश्ता


Parvesh Kumar

ये होता रहेगा जब तक है भ्रष्टाचार भी

कहीं बहार आई मोहब्बत की
कहीं कमी हो गई प्यार की,
किसी को मिली शान सवारी
किसी को मिले नहीं कंधे चार भी,
किसी का राज़ है किसी के ठाठ हैं
कोई खाता सब्जी शाही पनीर की,
कोई बेबस है तो कोई लाचार है
किसी को मिलता नहीं रोटी के साथ आचार भी
कोई गरीब है और कोई बेरोजगार है,
और कितने ही घूमते बेकार भी,
कोई अमीर है तो किसी का व्यापार है,
और कितने ही चलाते कार भी.
कोई भूखा सोता कोई दर्द से रोता
किसी को मिलता नहीं कोई उपचार भी,
कोई ‘बार’ में पीता ‘एम्स’ में ठीक होता
ये होता रहेगा जब तक है भ्रष्टाचार भी


Parvesh Kumar

यूँ तो मंजिल पता है मुझको

हर दिन मैं भूखा होता हूँ,
हर रात मैं भूखा सोता हूँ
यूँ तो हँसता हूँ दिखलाने को,
पर सच अन्दर से हरपल रोता हूँ
सब पाना अच्छा लगता है,
पर कुछ खोने से मैं डरता हूँ,
यूँ तो रहता हूँ हमेशा भीड़ में,
पर सच मैं हरपल अकेला होता हूँ
कौन है अपना कौन पराया
इतना भी समझ नहीं पाता हूँ,
यूँ तो मंजिल पता है मुझको
पर रास्तों पर भटक सा जाता हूँ
ख़ुदा से हरदम पूछता हूँ
पर खुद से पूछ नहीं पाता हूँ,
यूँ तो मेरा कोई कुसूर नहीं
पर जाने मैं क्यों सजा पाता हूँ


Parvesh Kumar

Thursday 26 November 2015

दोस्तों की सबकी शादी लगी होने

दोस्तों की सबकी शादी लगी होने,
मेरी अब उम्र लगी गुजरने
मेरे माथे पर लकीरों का घेरा,
दोस्तों के सर पर शादी का सेहरा,
सूखे फूल भी महकने लगे वहां
मेरा मुरझाने लग गया चेहरा
वहां पर है संगीत-ए-ख़ुशी
मेरे घर पर है गम-ए-शायरी,
मैं रह गया कुंवारा अकेला
झूठी लगने लग गई दोस्ती यारी
जब वहां बजने लगी शहनाई
मेरे दिल पर बिजली सी गर्जाई,
उनके आँगन में हो गई रौशनी
मेरी ज़िन्दगी में काली अमावास आई
वहां थी रात सुहाग वाली,
मैं करवट बदलता रहा रातभर,
वो मनाने लगे रोज दिवाली
पटाखों से जल गया मेरा शहर
किसी को मिली बाइक हौंडा
कोई चलाने लग गया हौंडा कार,
घरवाले दांत पीसने लगे मुझपर
मैं लगने लग गया उन्हें बेकार
कुछ वक़्त बीता है शायद एक-दो साल
आधे दोस्त शकल से लगते है फटेहाल,
कुछ चल रहे हैं संभल-संभलकर
मगर हम है अब तक खुशहाल
हम भी ये लड्डू खायेंगे मगर
इंतजार है कब सही वक़्त आए,
क्योंकि जो खावे वो भी पछतावे और
जो न खावे वो भी पछतावे


Parvesh Kumar

ये इच्छा है मेरे माँ-बाप की

देख कर जिसको भड़के शोले
दिल में दहके अँगारे,
दुश्मन का नामो निशां मिटा दे
ना कभी किसी से हारे
ये है वर्दी एक जवान की..
मैं भी कभी ये वर्दी पहनूं
ये इच्छा है मेरे माँ-बाप की
पापा है मेरे फ़ौज में,
सब कहते है मैं हूँ मौज में,
कोई क्या मुझको जानेगा,
दिल की हालत पहचानेगा
हम भी चाहते है वर्दी आन की
मैं भी कभी ये वर्दी पहनूं
ये इच्छा है मेरे माँ-बाप की
गम में आंसू बहाते हैं सब
कौन खुशियों में रोता है,
अच्छी किस्मत जिसकी होती
वतन के लिए वो ही मरता है
हम भी चाहते हैं मौत शान की..
मैं भी कभी ये वर्दी पहनूं
ये इच्छा है मेरे माँ-बाप की


Parvesh Kumar

Wednesday 25 November 2015

बहुत देख लिया तूने चाँद को “प्रवेश”

मेरी छत से जब जुगनू होकर गुजरते हैं,
मेरे दिल में तब तेरी याद के दर्द उभरते हैं
शबे-वस्ल को भुला नहीं हूँ मैं अब तक,
उन्हें याद करके अब हिज्र के दिन गुजरते हैं
हर महफ़िल में जिनके वादों के चर्चे थे,
अब वो बज़्म में अपने वादों से मुकरते हैं
वो कहते हैं नहीं कोई रिश्ता हमसे तुम्हारा,
मैं दिल को बहला रहा हूँ कि वो मजाक करते हैं
बहुत देख लिया तूने चाँद को “प्रवेश”,
रात कट जाएगी चल अब तारों को गिनते हैं
Parvesh Kumar

इस कदर उसे खुदपर गुरुर हो गया

दिल मेरा टूटा और चकनाचूर हो गया,
इस कदर उसे खुदपर गुरुर हो गया
कहीं शमा जली कहीं जल गया परवाना,
हर कोई यहाँ पर मगरूर हो गया
जब देखा ख़ुदा ने नहीं इंसानियत यहाँ पर,
वो अपनी बनाई दुनिया से ही दूर हो गया
Parvesh Kumar

मेरा भी कसुर है मैंने प्यार किया उससे

गरीबी से बढ़कर कोई मज़बूरी नहीं है,
अब मेरी मौजूदगी यहाँ ज़रूरी नहीं है
हलाल हुआ हूँ बेवफाई के खंज़र से ,
अब मौत से मेरी ज्यादा दूरी नहीं है
नासूर बन गए हैं जख्म मेरे अब,
मुझे मारने की कोशिश उसकी अधुरी नहीं है
मेरा भी कसुर है मैंने प्यार किया उससे,
मत देना सज़ा उसको वो कातिल पूरी नहीं है
मैंने सोचा था संवर जाएगी ज़िन्दगी प्यार से मेरी,
पर जीने के लिए प्यार करना ज़रूरी नहीं है
Parvesh Kumar

Monday 23 November 2015

गाँव हो शहर हो कैसे जी रहे हैं लोग

गाँव हो शहर हो कैसे जी रहे हैं लोग,
हवा के नाम पर जहरीली हवा पी रहे हैं लोग
शुद्धता सिर्फ मार्कों में बंध के रह गयी,
अब पानी वाला दूध सब पी रहे हैं लोग
कल बस्ती में आया था एक जादूगर,
आज भगवान को उसी मे खोज रहे हैं लोग
मीरा, कबीरा क्या इसी धरती पे रहते थे,
फिर अब इस दुनिया के कैसे हो गए हैं लोग
अब जा रहा है ‘प्रवेश’ भी अपने घर को ,
यहाँ तो सदियों से सब सो रहे हैं लोग
Parvesh Kumar 

मयखाने में आ गए हम

मैं रहा न मैं तुम रहे न तुम,
क्यूँ हुए अलग गर बेवफ़ा नहीं हम
है रीत वही, है हर मौसम भी वही ,
क्यूँ रहे ना वो लोग ना रहे वो सनम
मैं हो रहा बर्बाद ये तकदीर मेरी है,
तू मुझे ना सोचना तुझको मेरी कसम
लैला मजनूं, हीर राँझा नसीब की बातें हैं,
तुझे मिली डोली मुझे मिला जाम,
मयखाने में आ गए हम, ऐ साकी,
वो मय पिला वफ़ा हो जिसका नाम
Parvesh Kumar 


Sunday 22 November 2015

तूफ़ान जो आए राहो में

तूफ़ान जो आए राहो में उनसे
लड़ने का मुझमे हौसला है
जिंदगी के पेड़ की सबसे ऊँची
टहनी पर मेरा घोसला है
अभी और ऊपर मुझे जाना है,
सारे आसमान को पाना है
जहाँ ना पहुँचा अब तक कोई
वही मंजिल मेरा ठिकाना है
कोई कहता है मुझे पागल
कोई कहता है दीवाना है
मंजिल पाने की ललक है मुझमे
बस इतना सा मेरा फ़साना है
पैदा होना और मर जाना
ये तो दस्तूर-ए-ज़माना है,
लेकिन मुझे तो पैर ज़मीन पर रखकर
हवाओं में उड़ते हुए जाना है


Parvesh Kumar 

हमसे हमारा बचपन छीनने जब जवानी आती है

हमसे हमारा बचपन छीनने जब जवानी आती है,
सिर्फ यादें छोड़ जाती है सारी खुशियाँ ले जाती है
नौकरी पाने की लालसा जब हमें सताने लगती है
,
ज़माने भर की चिंताएं चेहरे पर नजर आने लगती हैं
यारों दोस्तों के संग महफ़िल सब छूटने लग जाती है
भविष्य के बारे में सोचकर रातों में नींद टूटने लग जाती है
स्कूल में जल्दी जाकर जब पीछे के बेंच पर बैठते थे,
छोटे छोटे बेर खाकर दोस्तों पर बीज फेंकते थे
याद करके उन बातों को दिल भर जाता है,
नाम मोबाइल में सबके है पर
डायल करने का वक़्त नहीं मिल पाता है.
कोई इंजिनियर बनना चाहता है कोई बनना चाहता है डॉक्टर,
कोई घर के पास नौकरी करता है कोई करता है मीलों जाकर
कभी आपस में हँसते खेलते थे आज आपस में ही होड़ लगी है,
एक दुसरे से आगे निकलने की देखो कैसी दौड़ लगी है
आँखें बंद करते ही अब गांधी की सूरत दिखती है,
जब लाख कोशिश करने पर भी छोटी सी नौकरी मिलती है
बढती भ्रष्टाचारी को देखकर रोज इच्छाएँ बढती जाती है,
पर बेरोजगारी की महामारी में तनख्वाह
                       घर का खर्चा ही चला पाती है
नई-नई जिम्मेदारियों का बोझ रोज बढ़ता ही जाता है
दोस्तों और रिश्तेदारों से अब संपर्क खत्म सा हो जाता है
जब कच्छे में खेला करते थे वो अच्छे थे दिन बचपन के,
अब पैंतीस की उम्र मे हम लगने लगें हैं पचपन के


Parvesh Kumar 

कागज़ की पत्तियों का हर कोई पुजारी है

नफरत ही नफरत से छिक सा गया हूँ मैं,
सुन-सुन कर सबकी बातें थक सा गया हूँ मैं.
हर एक चेहरे ने मुझे घुर कर देखा है,
कसूर मेरा है क्या मेरे हाथ में कौनसी रेखा है.
रोटी भी अपनी नहीं आसमान ही घरोंदा है,
पत्थर की मूरत से मांगी हुई दुआ में जिंदा हैं.
पैसे वालों के घर जाकर थोकर ही खाई है,
दर-दर जाकर मैंने ये ज़िन्दगी कमाई है.
कागज़ की पत्तियों का हर कोई पुजारी है,
दौलत की इस दुनिया में सिर्फ मतलब की यारी है.
पत्थर की आँखों से मैंने अश्क बहाए हैं,
जो खुशियाँ थी कल मेरी आज वो जलवे पराये हैं.
अपनी सूरत देखने को शीशे की अलमारी खोली है,
मुक्ति पाने की चाहत में मैंने हरेक कब्र टटोली है


Parvesh Kumar 

Friday 20 November 2015

सुख दुःख किस्मत के संगी साथी

साथी रूठा दिल भी हमारा टूट गया ,
साथ था जो सदियों से वो भी छूट गया
ख़त्म हुई इन्तहा अब इश्क़ की,

दिल जो था प्यार का सागर सूख गया
सुख दुःख किस्मत के संगी साथी,
हमसे तो ख़ुदा भी हमारा रूठ गया,
पकडे हुए थे दामन खुशियों का कब से,
आया हवा का झोंका दामन 
छूट गया,
हुई है ख़ता मंजिल भी खफ़ा है ,
किस्मत किस्मत कहते था साथ उसका छूट गया,
इस दौराही ज़िन्दगी को अब कैसे जियूँ ,
न कहना ऐ ज़िन्दगी क्यूँ तू हमसे रूठ गया
Parvesh Kumar 

कहीं शमा जली कहीं जल गया परवाना

दिल मेरा टूटा और चकनाचूर हो गया ,
इस कदर उसे खुदपर गुरुर हो गया
कहीं शमा जली कहीं जल गया परवाना ,
हर कोई यहाँ पर मगरूर हो गया
जब देखा ख़ुदा ने नहीं इंसानियत यहाँ पर,
वो अपनी बनाई दुनिया से ही दूर हो गया
Parvesh Kumar 

Thursday 19 November 2015

उस सांवली लड़की की याद बहुत आती है

काली रातों में जब अकेलापन लगता है,
आँखें सोती है दिल सारी रात जगता है
कमरे में जब अकेले सोने जाता हूँ,
दीवारों को मैं अपना रास्ता तकते हुए पाता हूँ
दीवारें भी जब मुझे चिड़ाती नजर आती हैं,
तब उस सांवली लड़की की याद बहुत आती है
कमरे की लाइट जब पूरी रात जलाकर रखता हूँ,
चुपके से उसका फोटो तकिये के नीचे रखता हूँ
मम्मी जब कहती है लाइट बंद तो किया कर,
कितना दुबला हो गया है पूरी नींद लिया कर,
मम्मी की जब हर बात जबरदस्ती नजर आती है
तब उस सांवली लड़की की याद बहुत आती है
सुबह उठते ही उसकी तस्वीर टटोली जाती है,
फोटो में ही उसकी गुड मोर्निंग बोली जाती है
जब कमरे में सूरज की किरण आने लगती है,
फिर यादों में उसकी सुबह सुहानी लगती है
हवाओं में भी उसकी खुशबू आने लगती है,
तब उस सांवली लड़की की याद बहुत आती है
सारी सारी रात फेसबुक पर गुजरने लगती है,
नींद पूरी नहीं होती आँखें सूजने लगती हैं,
सारा सारा दिन जब उदास उदास सा रहता हूँ,
मुझे भूख नहीं,हर बार मम्मी से जब ये कहता हूँ,
घर में फिर मेरे रिश्ते की बात चलाई जाती है,
तब उस सांवली लड़की की याद बहुत आती है
घर में जब रोज रिश्ते वाले आते हैं,
ऐसा लगता है जैसे मुझे निगलने आते हैं
मम्मी पापा जब उनसे मिलने मुझे बुलाते हैं
उनके भोले भाले चेहरे मुझे शैतान नजर आते हैं.
जब मुझे लड़की की तस्वीर दिखाई जाती है

तब उस सांवली लड़की की याद बहुत आती है.
बड़ा भाई जब कहता है शादी करके घर बसाले,
किसी का विश्वास ना कर दुनिया के है खेल निराले,
मैं कहता हूँ मुझे पहले अपना करियर बनाना है,
छोटी-छोटी खुशियों के लिए अपना सपना नहीं जलाना है,
जब घरवालों से मुझको आज़ादी मिल जाती है,
तब उस सांवली लड़की की याद बहुत आती है


Parvesh Kumar 

हर क्षेत्र में हो रही है प्रतियोगिता

देखो वक़्त ने ली कैसी करवट
सच्चाई के सामने झूठ कपडे बदल रही है,
कुंवारी लड़की हो रही है घर्भवती
शादी शुदा बच्चों की खातिर दवा खा रही है
हर क्षेत्र में हो रही है प्रतियोगिता
चाहे शिक्षा हो या खेल हो या हो वासना,
लड़के बढ़ा रहे है गर्लफ्रेंड की संख्या
और लड़कियां रोज बॉयफ्रेंड बदल रही हैं,
शादी-शुदा भी नहीं है पीछे किसी से
साथ है बीवी और नजर कही है
गर पति करना चाहे वफ़ा तो
पत्नी बेवफ़ा निकल रही हैं.
क्या होगा जब आएगी नयी पीढ़ी
और देखे और सुनेगी ऐसी बातों को,
एक हाथ में होगी बोतल एक में बीड़ी
और दिन को छोड़कर पूजेगी काली रातों को


Parvesh Kumar 

Wednesday 18 November 2015

बात हम पर आए तो गौर करना

इन्तहा प्यार की हो जाए तो गौर करना,
बात हम पर आए तो गौर करना
हमें बूरा समझकर बेशक छोड़ देना,
पर जाने से पहले दिलपर भी गौर करना
अंधेरों की तलाश में जा रहे हो जंगल में,
वहां जुगनू टिमटिमाते हैं गौर करना
हम दूर भले तुम जाओ राजनीति में,
वहां सांप बिच्छू भी हैं गौर करना
आँखों में लालच, दिल में भ्रष्टाचार लेकर जाना,
वर्ना वहां सबसे बड़ी कुर्सी पे सांप मिलेगा गौर करना
झूठ बोलता था तो सब सीने से लगाते थे,
सच बोल गया ‘प्रवेश’ अब क्या होगा गौर करना


Parvesh Kumar 

मेरी मुहब्बत हुई बेअसर है

मेरी मुहब्बत हुई बेअसर है,
तेरी बाहें गैरों को मयस्सर हैं
मौत की चाहत रहती है सदा,
ये हम आ गए किस नगर हैं
पहले शीशे का आशियाना बनवाया,
अब खुद ही वो मारते पत्थर हैं
आँखों में तो सिर्फ चिंगारी है,
आग का गोला मेरे भीतर है
अंधेरों में था तो खुश था मैं,
एक जुगनू ने मुझे मारी टक्कर है
ख़ुदा बूला ले मुझे अब ऊपर तू,
मरने में मेरे बची क्या कसर है


Parvesh Kumar 

Tuesday 17 November 2015

ज़िन्दगी हर कदम एक नया इम्तिहान होता है

खाली जेब ने सीखा दिया ज़िन्दगी जीना,
हँसते रहो चाहे गम को पडे पीना
हाथ पसारोगे तो कोई तुमको कहेगा कमीना
करो मेहनत चाहे जितना निकले पसीना
भीख मांगना भी कहाँ आसान होता है ,
ज़िन्दगी हर कदम एक नया इम्तिहान होता है.
एक महफ़िल में आ गया मुझको रोना
टूटा था उस दिन मेरा सपना सलोना,
मिला नहीं मुझे शुकून का कोई कोना
जाना मैंने तब कुछ पाकर के खोना
कुछ पाना भी कहाँ आसान होता है खाली
ज़िन्दगी हर कदम एक नया इम्तिहान होता है


Parvesh Kumar 

हम दोनों गुरु थे दोनों चेले

मेरे सफ़र में हमसफ़र “शीशा”
इसमें है एक मेरा जैसा,
चल ढाल सब एक से हैं
मेरे जैसी ही बोले भाषा
जब सफ़र शुरू किया मैंने अकेले
हम दोनों गुरु थे दोनों चेले ,
कुछ मुझे पता था कुछ उसने सिखाया
सारे खेल हमने साथ में खेले


Parvesh Kumar

कौन किसी से करेगा मोहब्बत

बात बात पर फांसी खाना
युवाओं की आदत हो गई है,
मुजरिमों को कोर्ट में
सरे-आम जमानत हो रही है
अब तो शरीफों को भी
बदमाशों की ज़रूरत हो रही है
नफरत की इस दुनिया में
मोहब्बत भी जलालत हो गई है
लड़ाई झगडे और ख़ुदकुशी देखकर
कौन किसी से करेगा मोहब्बत,
हर कोई चाहेगा रहना अकेला
अन्दर ही घुट जायेंगे जज्बात
सबकी उम्र हो जाएगी छोटी
सबको लेने आएगी काली रात,
हर टुकड़ा धरती का होगा सुनसान
न होगा कोई धर्म न होगी कोई जात,
लैला मजनूं, हीर और रांझा
सब हो गई अब पुरानी बात
अब तो जगह-जगह पर
लैला मजनुओं की शहादत हो रही है,
बात बात फार फांसी खाना
युवाओं की आदत हो गई है


Parvesh Kumar 

Sunday 15 November 2015

आई मुझे तेरी बहूत याद मगर

कोई गिला नहीं तुझसे तेरे दीवाने को आज,
करेगी मझे याद दुनिया से चले जाने के बाद
तपते रेगिस्तान में तड़पा बहूत एक मुसाफिर,
मगर पानी की कद्र ही न थी प्यास बुझ जाने के बाद
आई मुझे तेरी बहूत याद मगर दो ही वक़्त,
वस्ल से पहले दूसरी जुदाई के बाद
है दस्तूर ज़माने का, मोहब्बत सच्ची लगती है,
शमा को, परवाने के जल जाने के बाद
ख्वाहिशें पूरी हो जाएँ सारी तो शौक से मरना “प्रवेश”,
वरना आत्मा को भटकना पड़ता है मर जाने के बाद


Parvesh Kumar 

इश्क़ में किसी के खुद को भुलाना नहीं अच्छा

कुच-ऐ-यार में बार बार जाना नहीं अच्छा,
इस दौर के बुतों से दिल का लगाना नहीं अच्छा.
हिम्मत करके डाला गर सिर तुमने ऊखल में,
तो मुसल की चोट से अब घबराना नहीं अच्छा.
जिस डगर से लौटकर आना ना हो मुमकिन,
उस डगर पर कदम का बढ़ाना नहीं अच्छा.
रखनी है गर अपनी भी हस्ती सलामत “प्रवेश”,
तो इश्क़ में किसी के खुद को भुलाना नहीं अच्छा


Parvesh Kumar 

क्या तुम्हे भी हिचकियाँ नहीं आती ?


      जितनी तकलीफ़ और तड़प इस जाड़े के मौसम से होती है उतनी तो उस बेवफा की जुदाई के वक़्त भी नहीं हुई थी | ऊपर से उसे ये गुमान कि बेवफाई उसने नहीं मैंने की है | लेकिन सच बताऊँ तो हमने अपने दिलों को अपने-अपने तरीके से समझा लिया है और एक दूसरे को हरजाई कहकर खुद का अपराधबोध कम कर लेते हैं | हम दोनों में से, दरअसल, बेवफ़ा कोई नहीं है, मैं थोड़ा बदतमीज हूँ और वो थोड़ी बददिमाग | अब हम एक दूसरे को याद नहीं करते, बस भूलने की कोशिशों में लगे रहते हैं |
      तुम्हारा तो पता नहीं कि कितना याद करती हो | ना तो मुझे कोई हिचकी ही आती है ना facebook और whatsapp पर तुम्हारा जवाब | शायद भूल ही गयी हो, थोड़ा पत्थर दिल तो तुम हो ही | क्यों ? इसमें झूठ क्या है ? तुम खुद भी तो पहले स्वीकार करती थी लेकिन जब से अलग हुई हो पुरानी बातें सब भूल गयी हो | अच्छा एक बात बताओ, क्या तुम्हे भी हिचकियाँ नहीं आती ?
      जानता हूँ, तुम यही कहना चाहती हो ना कि कभी मैं याद करूँ तो हिचकी आये | तुम्हे सच बताऊँ आज तुम्हे किस कदर भुलाने की कोशिश की है |
      सर्दियाँ शुरू होने के बाद आज पहली बार सुबह को बाहर निकला | काफी लम्बा सफ़र था और बाइक से जा रहा था | बाइक पर ठंडी हवाओं ने भीतर तक सब ठंडा कर दिया | मुझे तुम्हारी याद आई और लगा तुम कहीं आसपास हो | दिल्ली से बाहर, तुम्हारे शहर से दूर जा रहा था | लेकिन तुम बड़ी दुष्ट हो, तुम कैसे जाने देती मुझे खुद से, अपने शहर, अपनी नज़रों से दूर | तुम्हे मज़ा जो आता है मुझे तड़पते हुए देखने में |

      तुम्हारे शहर की सीमा से बाहर निकला ही था कि धुंध ने सारा दृश्य धुंधला कर दिया | मालूम नहीं अब धुंध को तुमने भेजा था या तुम खुद धुंध बन कर आई थी | मुझे तो लगता है तुम खुद ही थी | पुरे सफ़र मुझे रास्ता भुलाने की कोशिश करती रही |
      तुम ही थी मुझे यकीन है क्योंकि तुमने ओस बनकर मुझे छुआ था | तुम्हारा सपर्श अभी भी मेरी स्मृतियों में बसा हुआ है | मेरे सर, पलकों और मेरी छोटी-छोटी मूछों को तुम कैसे ओस की बूँद बनकर छू रही थी | अब तुम चुप रहो, ये मेरा सच है या जो भी हो | मुझे तुम्हारी सफाई नहीं चाहिए कि तुम नहीं थी | मुझे मालूम है तुम ही थी, बस तुम ही थी |
अच्छा एक बात बताओ, आजकल रातों में तुम्हे इतना जल्दी नींद कैसे आ जाती है | मैं तो देर रात तक करवटें बदलते रहता हूँ और सोचता हूँ कि अब करवट बदलूँगा तो बगल में तुम लेटी मिलोगी | और मुझे आगोश में भर लोगी, कभी ना अलग होने के वादे के साथ | आज की रात भी यूँ ही गुजर गयी | ना तो तुम्हे भूल पाया और ना करवट बदलने पर तुम ही मिली | लेकिन एक वादा करो, बस आख़िरी वादा | अगर मुझे कभी हिचकी आई तो मैं तुम्हे बताऊंगा और अगर तुम्हे हिचकी आई तो तुम भी मुझे facebook या Whatsapp करोगी | मुझे पता है आज तुम्हे हिचकी आई है | अब प्लीज Message कर दो | मैं Facebook पर तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ |


Writer – Parvesh Kumar 

Friday 13 November 2015

शुक्र है हम बेवफ़ा ना थे

शीशा-ए-दिल मेरा मलमल से टूट गया,
हाथ में जो आँचल था वो छूट गया,
इंसानों की इस दुनिया में कल
अकेलेपन से दम घुट गया.
दिल के टुकड़े हजार हुए
हर टुकड़े में थे दर्द नए,
ये अंजाम है मेरी वफ़ा का
शुक्र है हम बेवफ़ा ना थे.
वो दूर है वो बेवफ़ा नहीं
होगा उनका भी कोई सपना कहीं,
रोज टूटते है दिल सैकड़ों
मेरा भी टूटा, नई बात नहीं.
वो दूर हैं, कुछ उनके उसूल हैं
उसूल में जीना कोई ख़राब नहीं,
दर्द-ए-दिल की दवा है हाथ में
मैं जो पीता हूँ ये वो शराब नहीं.
दिल का हरेक टुकड़ा जोड़ा है
मैं ही जनता हूँ कैसे,
जख्म देकर वो पूछते हैं
अब मेरे बिन जियोगे कैसे


Parvesh Kumar 

यौवन में कली जब खिल जाती है

यौवन में कली जब खिल जाती है,
तब जाकर फूलों से मिल पाती है,
कलियों की जवानी का आगाज़ होता है,
ये ही फूलों की खुशबू का राज़ होता है.
क्या-क्या खेल खेले चमन में,
कली के आकार से सभी बयाँ होता है.
पहले कली की खुशबू चुराई जाती है.
फिर उसके रस को चूसा जाता है.
पहली कली को छोड़ अकेला,
फूल दूसरी कली को जाता है.
फूल का कुछ नहीं बिगड़ता
कली का दुश्मन ज़माना हो जाता है


Parvesh Kumar 

Thursday 12 November 2015

कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई सिख कोई ईसाई है

सीधे रास्तों पर जब जब ठोकर खायी है,
ऐ ज़िन्दगी तब तब हमे तू लगी परायी है.
इश्क़ को समझा खुशियों का सागर मैंने,
इश्क़ किया तो जाना ये तो गहरी खायी है.
बाहर निकल कर मयखाने से देखा तो ,
ये मेरे संग चल रही किसकी परछाई है.
मुझको ठुकराओ या अपनाओ तेरी मर्जी है,
मुझमे बहूत बुराई सही पर कुछ अच्छाई है.
सुना था दवा से बढ़कर दुआ में है असर बहूत,
दुआ भी बेकार हुई अब मेरी क्या दवाई है.
हैरत की बात है कि यहाँ इंसान नहीं कोई,
कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई सिख कोई ईसाई है,
सारी बस्ती छोड़ मेरे घर में सिर्फ आग लगी,
किसको दूं दोष पड़ोस में सब ही मेरे भाई हैं.
छोड़ चला ये बस्ती ये देश “प्रवेश”,
इन सबसे दूर जाने में ही भलाई है


Parvesh Kumar PK

कैसा है ये पागलपन


हाथों का ये कालापन, मेहनत का ये रंग है,
कैसा है ये पागलपन, पेट की भूख से जंग है.
खून निकला है अब और पसीना बह गया ,
फिर भी पेट भूखा है और हाथ तंग है.
जूल्म सहते, चुपचाप रहते , कुछ ना कहते ,

ख़ुदा इनके संग है या ये ख़ुदा के संग है 


Parvesh Kumar 

Wednesday 11 November 2015

मैंने देखा है इन दर्द भरी आहों से


बचपन के झूलों से
जवानी के मेलों तक का सफ़र
मैंने देखा है इन दर्द भरी आहों से.........
सोते हुए कदमो से
जाना है कहाँ तक, पूछा है
इन भागती हुई राहों ने........................
छोटी सी मंझी में
माँ की लौरी से
सो जाते थे पलभर में
अब मलमल के बिस्तर में
ठंडी ठंडी हवाओं से
नींद नहीं निगाहों में..............................
बचपन के झूलों से
जवानी के मेलों तक का सफ़र
मैंने देखा है इन दर्द भरी आहों से.........
मिट्टी के घरोंदो में
मासूम सी खुशियों से
दिन कट जाते थे पलभर में,
अब बिजली के सामानों से
बनावट की दुनिया में
चैन नहीं किसी की बाहों में ..................
बचपन के झूलों से
जवानी के मेलों तक का सफ़र
मैंने देखा है इन दर्द भरी आहों से...........
झूठे-झूठे चेहरों में 
नफरत की नजरों से
मैंने इक चेहरा तलाशा है,
पर चांदी की चमक से
दौलत की मोहब्बत में

अनजान है वो वफाओं से ........................
बचपन के झूलों से
जवानी के मेलों तक का सफ़र
मैंने देखा है इन दर्द भरी आहों से.............


Parvesh Kumar


सर्दी की गीली रातों में यौवन से नहाया जाता है


कडकडाती सर्दी में जब एक कम्बल होता है,
हरेक जोड़ा फिर उस कम्बल में ही सोता है.
ऑफिस की थकावट को गर्म पसीनों से बहाया जाता है,
सर्दी की गीली रातों में यौवन से नहाया जाता है.
मीठी-मीठी बातों से फिर समां रंगीन हो जाता है,
चरम सीमा पर पहुँच कर प्यार कुछ मीठा कुछ नमकीन हो जाता है.
हर भाव आपस में कुछ ऐसे मिल जाता है,
वीर रस जाकर फिर अंतर्मन में घुल जाता है.
रात भर की खटपट के बाद जब सुबह हो जाती है,
दोनों की ज़िन्दगी फिर तारो ताज़ी हो जाती है


Parvesh Kumar 

Tuesday 10 November 2015

कभी बहन, कभी बीवी बनकर हर कदम उसे संभाला है


देखा मैंने हर द्वार पर पुरुष के नाम जड़े हुए,
ऐ औरत तेरे अधिकार हैं कहाँ पड़े हुए,
क्यों तेरा कोई अधिकार नहीं है
क्यों तेरा कोई आधार नहीं है |
माँ बनकर तूने पुरुष को अपने प्राण-पुष्पों से पाला है,
कभी बहन, कभी बीवी बनकर हर कदम उसे संभाला है |
तेरे बिना नहीं संसार की कोई कल्पना है
सुखी आँखें है, ना आँसू, ना प्यार, ना सपना है |
चार दीवारों से निकली है आज़ाद तो हुई है मगर,
‘लड़का लड़की एक समान’ नारों में बंधी है
अभी पूरी आज़ाद कहाँ हुई है |
संस्कृति की नक़ल हुई मगर सोच नहीं बदली,
संशय में हूँ ये समाज असली है या नकली |
बदलाव नियम है इसलिए उम्मीद अभी जिंदा है,
एक दिन आज़ाद हो जायेगा इस पिंजरे में जो परिंदा है |

Parvesh Kumar 




कभी वो मेरी होती है कभी हम उनके होते हैं


वैसे तो लड़के बहूत कम रोते हैं,
मगर ये भी रोते हैं जब गम होते हैं.
रात में बारिश देखना हो, आना मेरे दर पे,
यहाँ सारी रात आँखों में आंसू होते हैं,
खूली आँखों से भी देखता हूँ सपने उसके ,
इसीलिए रातों में भी हम कम सोते हैं ,
आएगी हर सुबह मंजिल की खुशबू लेकर,
नींद नहीं आती अब सिर्फ इंतजार होते हैं .
मिल जाएँ उसे ज़माने भर की खुशियाँ ,
बस अब तो हर वक़्त यही दुआ करते हैं,
जबसे खायी है कसम उसने तूफानों से लड़ने की ,
तब से हम हर तूफानों में दिया जलाते हैं.
जब दिये की लौ लडती है हवाओं से,
कभी वो मेरी होती है कभी हम उनके होते हैं


Parvesh Kumar