हमसे हमारा बचपन छीनने जब जवानी आती है,
सिर्फ यादें छोड़ जाती है सारी खुशियाँ ले जाती है
नौकरी पाने की लालसा जब हमें सताने लगती है,
ज़माने भर की चिंताएं चेहरे पर नजर आने लगती हैं
यारों दोस्तों के संग महफ़िल सब छूटने लग जाती है
भविष्य के बारे में सोचकर रातों में नींद टूटने लग जाती है
स्कूल में जल्दी जाकर जब पीछे के बेंच पर बैठते थे,
छोटे छोटे बेर खाकर दोस्तों पर बीज फेंकते थे
याद करके उन बातों को दिल भर जाता है,
नाम मोबाइल में सबके है पर
डायल करने का वक़्त नहीं मिल पाता है.
कोई इंजिनियर बनना चाहता है कोई बनना चाहता है डॉक्टर,
कोई घर के पास नौकरी करता है कोई करता है मीलों जाकर
कभी आपस में हँसते खेलते थे आज आपस में ही होड़ लगी है,
एक दुसरे से आगे निकलने की देखो कैसी दौड़ लगी है
आँखें बंद करते ही अब गांधी की सूरत दिखती है,
जब लाख कोशिश करने पर भी छोटी सी नौकरी मिलती है
बढती भ्रष्टाचारी को देखकर रोज इच्छाएँ बढती जाती है,
पर बेरोजगारी की महामारी में तनख्वाह
घर का खर्चा ही चला पाती है
नई-नई जिम्मेदारियों का बोझ रोज बढ़ता ही जाता है
दोस्तों और रिश्तेदारों से अब संपर्क खत्म सा हो जाता है
जब कच्छे में खेला करते थे वो अच्छे थे दिन बचपन के,
अब पैंतीस की उम्र मे हम लगने लगें हैं पचपन के
Parvesh Kumar
सिर्फ यादें छोड़ जाती है सारी खुशियाँ ले जाती है
नौकरी पाने की लालसा जब हमें सताने लगती है,
ज़माने भर की चिंताएं चेहरे पर नजर आने लगती हैं
यारों दोस्तों के संग महफ़िल सब छूटने लग जाती है
भविष्य के बारे में सोचकर रातों में नींद टूटने लग जाती है
स्कूल में जल्दी जाकर जब पीछे के बेंच पर बैठते थे,
छोटे छोटे बेर खाकर दोस्तों पर बीज फेंकते थे
याद करके उन बातों को दिल भर जाता है,
नाम मोबाइल में सबके है पर
डायल करने का वक़्त नहीं मिल पाता है.
कोई इंजिनियर बनना चाहता है कोई बनना चाहता है डॉक्टर,
कोई घर के पास नौकरी करता है कोई करता है मीलों जाकर
कभी आपस में हँसते खेलते थे आज आपस में ही होड़ लगी है,
एक दुसरे से आगे निकलने की देखो कैसी दौड़ लगी है
आँखें बंद करते ही अब गांधी की सूरत दिखती है,
जब लाख कोशिश करने पर भी छोटी सी नौकरी मिलती है
बढती भ्रष्टाचारी को देखकर रोज इच्छाएँ बढती जाती है,
पर बेरोजगारी की महामारी में तनख्वाह
घर का खर्चा ही चला पाती है
नई-नई जिम्मेदारियों का बोझ रोज बढ़ता ही जाता है
दोस्तों और रिश्तेदारों से अब संपर्क खत्म सा हो जाता है
जब कच्छे में खेला करते थे वो अच्छे थे दिन बचपन के,
अब पैंतीस की उम्र मे हम लगने लगें हैं पचपन के
Parvesh Kumar
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