सूरज आग उगल रहा था | दूर
तक खाली मैदान, कहीं कुछ नहीं, बस उस मैदान के बीच में, मैं और एक सफ़ेद रंग का
घोड़ा | घोड़ा ना जाने कहाँ से आया और मेरे पास आकर खड़ा हो गया | मुझे तो घुड़सवारी
आती भी ना थी | हो सकता है, उसे उस खाली मैदान में मेरे सिवा कोई दिखाई नहीं दिया
होगा | बस फिर क्या था, जहाँ मैं जाता मेरे साथ हो लेता | मैंने रुक कर उसकी तरफ
देखा | शायद मेरी तरह वो भी अपने अंदर के खालीपन और तन्हाई के राक्षस से लड़ रहा
था, तभी तो वहाँ पहुँच गया था |
अचानक, सूरज ने अपनी किरनें हम दोनों पर केन्द्रित कर दी, जैसे
अँधेरे कमरे में टोर्च की रौशनी से कुछ ढूंढने के लिए की जाती है | मगर वो हमारे
अन्दर क्या ढूंढ रहा था, ये क्या ! उसकी आग हमारे थोड़े से गीले गले को भी सुखाने
लगी | मेरी और घोड़े की नज़रें मिली, और हम दोनों, मैं उसके ऊपर, सूरज को पीठ दिखा
कर भाग खड़े हुए | हम बेतहाशा भागे जा रहे थे, शायद पानी की तालाश में, शायद जंगल
की तालाश में, तन्हाई के राक्षस से दूर |
अचानक, मैदान ख़त्म हो गया, सामने से पानी का समुंद्र बहा चला आ
रहा था | हम दोनों परेशान हुए, मैदान से भाग कर आये तो रुसवाई के समुंद्र ने घेर
लिया | ये घोड़ा तो बड़ा बेरहम निकला, मुझे पटक कर अकेला भाग खड़ा हुआ और उसके हिस्से
का मैदान और समुंद्र भी मेरे हिस्से आ गया |
मैं कुछ सोचता उससे पहले प्यास से मेरे प्राण सूखने लग गए, मेरी
चेतना जाती रही | मैं बेहोश, समुंद्र के साथ बहता रहा | वो कभी मुझे जोर का धक्का
मारता, कभी हवा में उछाल देता | एक मैं था, जो होश में ना आता था | आख़िर, मरे हुए
को कोई कब तक मारे, समुंद्र भी मुझे अकेला छोड़ कर चला गया |
ना मैदान, ना समुंद्र, ना घोड़ा | मेरी चेतना लौटी तो मैं अकेला
छोटे-छोटे, नर्म, गीले घास में पड़ा हुआ था | मुझे कोई दूर से मेरी ओर आता दिखाई
दिया | उसकी आकृति धुंधली थी मगर उसके हाथ में कुछ सामान था | वो नजदीक आया, उसने
मुझे सहारा देकर उठाया और अपने साथ लेकर चल दिया |
उसका चेहरा साफ-साफ तो नहीं दिखाई दिया, मगर कोई अपना सा लगा, सो
मैंने उसे कुछ नहीं कहा और उसके साथ-साथ चलता रहा | थोड़ी देर बाद उसने मुझे अपने
सामान से निकालकर पानी दिया | पानी की दो बूँद मेरे अन्दर जाते ही, मेरा खाली
मैदान हरा होने लगा, मेरे अन्दर का राक्षस डूबने के डर से चिल्लाने लगा | मैंने
जल्दी से एक बड़ा घूँट पानी का पी लिया | मुझे साफ सा दिखने लगा | वो अपना, मुझे
मेरे एक दोस्त जैसा लगा | मगर मैं उससे नाम पूछता, उसके साथ लंच करता जोकि उसके
सामान में था, मुझे यकीन था कि उसमे खाना ही था, मगर उससे पहले ही सपना टूट गया |
शायद वो दोस्त तुम थे ‘नवीन’ | खैर, शुक्रिया दोस्त ! शुक्रिया सपने !
Writer
- प्रवेश कुमार