Thursday, 12 November 2015

कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई सिख कोई ईसाई है

सीधे रास्तों पर जब जब ठोकर खायी है,
ऐ ज़िन्दगी तब तब हमे तू लगी परायी है.
इश्क़ को समझा खुशियों का सागर मैंने,
इश्क़ किया तो जाना ये तो गहरी खायी है.
बाहर निकल कर मयखाने से देखा तो ,
ये मेरे संग चल रही किसकी परछाई है.
मुझको ठुकराओ या अपनाओ तेरी मर्जी है,
मुझमे बहूत बुराई सही पर कुछ अच्छाई है.
सुना था दवा से बढ़कर दुआ में है असर बहूत,
दुआ भी बेकार हुई अब मेरी क्या दवाई है.
हैरत की बात है कि यहाँ इंसान नहीं कोई,
कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई सिख कोई ईसाई है,
सारी बस्ती छोड़ मेरे घर में सिर्फ आग लगी,
किसको दूं दोष पड़ोस में सब ही मेरे भाई हैं.
छोड़ चला ये बस्ती ये देश “प्रवेश”,
इन सबसे दूर जाने में ही भलाई है


Parvesh Kumar PK

कैसा है ये पागलपन


हाथों का ये कालापन, मेहनत का ये रंग है,
कैसा है ये पागलपन, पेट की भूख से जंग है.
खून निकला है अब और पसीना बह गया ,
फिर भी पेट भूखा है और हाथ तंग है.
जूल्म सहते, चुपचाप रहते , कुछ ना कहते ,

ख़ुदा इनके संग है या ये ख़ुदा के संग है 


Parvesh Kumar 

Wednesday, 11 November 2015

मैंने देखा है इन दर्द भरी आहों से


बचपन के झूलों से
जवानी के मेलों तक का सफ़र
मैंने देखा है इन दर्द भरी आहों से.........
सोते हुए कदमो से
जाना है कहाँ तक, पूछा है
इन भागती हुई राहों ने........................
छोटी सी मंझी में
माँ की लौरी से
सो जाते थे पलभर में
अब मलमल के बिस्तर में
ठंडी ठंडी हवाओं से
नींद नहीं निगाहों में..............................
बचपन के झूलों से
जवानी के मेलों तक का सफ़र
मैंने देखा है इन दर्द भरी आहों से.........
मिट्टी के घरोंदो में
मासूम सी खुशियों से
दिन कट जाते थे पलभर में,
अब बिजली के सामानों से
बनावट की दुनिया में
चैन नहीं किसी की बाहों में ..................
बचपन के झूलों से
जवानी के मेलों तक का सफ़र
मैंने देखा है इन दर्द भरी आहों से...........
झूठे-झूठे चेहरों में 
नफरत की नजरों से
मैंने इक चेहरा तलाशा है,
पर चांदी की चमक से
दौलत की मोहब्बत में

अनजान है वो वफाओं से ........................
बचपन के झूलों से
जवानी के मेलों तक का सफ़र
मैंने देखा है इन दर्द भरी आहों से.............


Parvesh Kumar