Sunday, 29 November 2015

जो होश में आ जाओ तो सोचना तुम

मेरी बस्ती के लोगों तुम्हे क्या हो गया है,
हो गयी सुबह फिर भी हर कोई सो रहा है
छोडो अपनी नींद निकल के देखो बाहर,
दर पर तुम्हारे कोई बेसहारा रो रहा है
तोड़ डालो अपने अपने घमंड की जंजीरें ,
हर इंसान खुद ही अपना नसीब खो रहा है
प्यार से जीने में भला तुमको तकलीफ क्या है
क्यूँ नफरत की आग में हर कोई जल रहा है
कब तक उगाते रहोगे तुम नक्सली पौधे ,
नदियाँ जम गयी अब पर्वत पिघल रहा है
जो होश में आ जाओ तो सोचना तुम,
क्यूँ “प्रवेश” इस बस्ती से आज जा रहा है
Parvesh Kumar

दिनभर बेहोश रहते हैं हम

कटते-कटते ही कटती हैं तुझसे बिछड़ के रातें,
नींद आएगी जिस दिन करूँगा तुमसे ख्वाब में बातें,
जिंदगी मुझे मेरी यूँ बोझ नहीं लगती,
गर तुम मुझे जुदाई की जायज़ कोई वजह बताते
तेरी बेवफाई के किस्से अब सुनने में आते हैं,
पहले पता चल जाता तो हम दिल ना लगते
मयखानों में अब हमारी रात गुजरती है,
दिनभर बेहोश रहते हैं हम होश में नहीं आते
हुस्ने-इश्क़ नीलम करने में मजा क्या है? “प्रवेश”
पूछूँगा उनसे गर नसीब हुई कभी मुलाकातें
Parvesh Kumar

लहरें: इश्क़ तिलिस्म

'आप गज़ब हैं मैडम जी. भोरे भोर कोई ओल्ड मौंक खोजता है का? अभी तो ठेका खुलबे नै किया होगा नै तो हम ला देते आपके लिए.'
'अरे न बाबू, क्या कहें. पीने का नहीं, चखने का मन हो रहा है. जुबान पर घुलता है उसका स्वाद. किसी पुरानी मीठी याद की तरह. एक ठो दोस्त हुआ करता था मेरा. बहुत साल पहले की बात है. बुलेट चलता था. तुम कभी मोटरसाइकिल चलाये हो?
'हाँ मैडम जी, राजदूत था हमरे बाबूजी के पास'
'अरे वाह. हम भी राजदूत ही चलाना सीखे थे पहली बार...तो रिजर्व का तो फंडा पता ही होगा तुमको.'
'हाँ मैडम जी, पेट्रोल ख़त्म होने पर भी जरा सा एक्स्ट्रा टंकी में जो रहता है...वोही न'
'हाँ हाँ...वोही...तो ऊ दोस्त हमरा रिजर्व में रहता था...माने...बहुत गम हो रहा...दिल टूटा हुआ है...किसी से बतियाने का मन कर रहा है...वैसेही...उसके लिए इश्क़ बॉर्डरलाइन पर हुआ करता था. हम ज़ब्त करके रखते थे खुद को...सब से इश्क़ ही हो जाएगा तो रोयेंगे कहाँ जा कर?'
'ऊ तो बात है...लेकिन आपका लड़की लोगन से कहियो दोस्ती नै था क्या?'

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लहरें: इश्क़ तिलिस्म