Sunday, 29 November 2015

जो होश में आ जाओ तो सोचना तुम

मेरी बस्ती के लोगों तुम्हे क्या हो गया है,
हो गयी सुबह फिर भी हर कोई सो रहा है
छोडो अपनी नींद निकल के देखो बाहर,
दर पर तुम्हारे कोई बेसहारा रो रहा है
तोड़ डालो अपने अपने घमंड की जंजीरें ,
हर इंसान खुद ही अपना नसीब खो रहा है
प्यार से जीने में भला तुमको तकलीफ क्या है
क्यूँ नफरत की आग में हर कोई जल रहा है
कब तक उगाते रहोगे तुम नक्सली पौधे ,
नदियाँ जम गयी अब पर्वत पिघल रहा है
जो होश में आ जाओ तो सोचना तुम,
क्यूँ “प्रवेश” इस बस्ती से आज जा रहा है
Parvesh Kumar

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