Sunday, 20 December 2015

जहाँ मैं सदा भगवान् का दास रहूँ

उदास शाम में बैठा हूँ मैं हार थक के,
सोना चाहता हूँ मैं किसी गोद में सर रख के,
जहाँ ना रौशनी हो ना अंधकार हो,
ना किसी मंजिलों का इंतजार हो,
ना ख़ामोशी हो ना शौर का संसार हो,
ना दुश्मनी हो किसी से ना किसी से प्यार हो,
ना अकेलापन हो ना कोई भीड़ हो,
ना जगता रहूँ ना कोई नींद हो,
ऐसी कोई अवस्था हो,
जिसमे इन सबसे अलग कोई व्यवस्था हो,
ना संसार का मैं प्राणी रहूँ,
ना दुसरे गृह में वास करूँ,
बस ऐसा कोई आवास हो
जहाँ मैं सदा भगवान् का दास रहूँ


हनुमान की तरह आग बुझाओ

एक बार पड़ गया मुझे एक जयन्ती में जाना,
वहां पर थे जंतुओं के प्रकार नाना-नाना
बुजुर्गों से लेकर कॉलेज के विधार्थी युवा
टेंट कुर्सियों का था बंदोबस्त पंखे दे रहे थे हवा,
हर बुजुर्ग के हाथ में थी गेंदे के फूलों की माला
जिसे था उन्हें किसी की प्रतिमा पर चढ़ाना
अजीब होती है ये जयंती की दास्तान
लोग माला लिए मौन खड़े होते हैं
जो कल मरा है उसे भूलकर
सालों पहले मरे हुए को रोते हैं
कहते है समय नहीं किसी के पास
और ये वाहियात तरीके से समय खोते हैं
फिर एक नोजवान आया मंच पर
बोला हम बुजुर्ग और तुम युवा हो,
हमारे पास तो बस कानून है,
तुम्हारे पास जोश और जूनून है
तुम्ही देश के आने वाले नेता हो
कहने वाले ये क्यूँ भूल जाते हैं
वे भी कभी युवा थे
बुजुर्ग तो बाद में होते हैं
भीड़ बुलाने का उनका अंदाज़ था निराला
क्योंकि अखबार में था उनको अपना फोटो छपवाना
और कहते हैं हमने जयंती मनाई
उनकी याद में हमारी आँख भर आई
इस तरह से वो ढोंग रचाते
घर जाते ही बीवी से लड़ते और बाहर,
शांति से रहने का आश्वासन दे जाते |

अगर आज होती पूंछ आदमी के पास
और मेरे पास कुछ जादू ख़ास
मैं ऐसे आदमियों की पूंछ में आग लगाता
और कहता, जयंती तुम बाद में बनाओ
अगर है तुम्हारे पास हुनर तो
हनुमान की तरह आग बुझाओ |

Friday, 18 December 2015

सूर्ख जोड़े में वो सुहागन बनी है

मेरे महबूब की डोली उठने लगी है,
मोहब्बत की दुनिया लुटने लगी है,
साथ ली थी जो कभी हमने साँसे,
एक एक करके वो सब घुटने लगी हैं |
देखी है मैंने मुस्कान उसके रुख पर,
मेरी अब धड़कन रुकने लगी है,
बसायेगी घर वो जाकर किसी गैर का,
मेरी तो दुनिया ही उजड़ने लगी है |
ले चलो अब मुझको दूर यहाँ से,
कानों में शहनाई चुभने लगी है
मयखाना कहाँ है कोई तो बता दो,
दिल में मेरे आग जलने लगी है |
कर लो तैयारी मेरे मरने की लोगो,
जिस्म से मेरे जान निकलने लगी है,
सूर्ख जोड़े में वो सुहागन बनी है,
इधर मेरे अरमानों की अर्थी जलने लगी है |
उसको तुम खुशियाँ लेने दो यारों,
‘प्रवेश’ की हस्ती मिटने लगी है |