वक़्त की ना हो कदर जहाँ पे
नफरत बहूत है मुझे उस जगह से,
अब नहीं रखता नजर मंजिल पर मैं
रख लिया है मंजिल को ही दिल में सजा के,
अब जाकर मौत का डर ख़त्म हुआ
हादसों में कई बार अपनी जान बचा के,
तसुव्वर उसके प्यार का अब भी है मुझे पर
अब इश्क़ में कदम रखता हूँ संभल-संभल के,
खुशियों की खातिर हमने प्यार किया
पर गम ही मिला है मुझे इश्क़ करके,
अब नहीं होता विश्वास परछाइयों पर भी
खायें हैं जब से मैंने सायों से धोखे |
“प्रवेश कुमार”
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