Sunday, 31 January 2016

झूठ बोलते थे तब मशहूर थे हम



पहले दुनियादारी से दूर थे हम
झूठ बोलते थे तब मशहूर थे हम
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सच क्या कहा बदनाम हो गए
अब ज़माने में कसूरवार है हम
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पहले अजनबीयों से भी मिलती थी ख़ुशी
अब आश्ना भी देने लगे है गम
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कैद रहते थे पहले खुद में ही कहीं
झूठ को छोड़ा आज़ाद हो गए हम
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अब अच्छे दोस्त कम सच्चे दुश्मन जियादा हैं
पहले झूठे दोस्त थे ज्यादा सच्चे दोस्त थे कम
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पहले मैं खुद को ढूँढा करता था
अब पता चला “प्रवेश” हम हैं हम
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Friday, 29 January 2016

ये देश और है वो देश और था



गांधी जी ने सपना देखा वो देश और था
ये देश और है वो देश और था
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सरहद पर लड़ता रहा पूत ज़िन्दगी भर
सलामती की ख़बर आई तो संदेश और था
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नेता ने ही लूट लिया सारे शहर को
पकड़ा गया जब उसका भेष और था
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इतिहास पढ़ा कल यकीं करना मुश्किल हो गया
सोने की चिड़िया वाला भारत और था ये देश और था
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"प्रवेश कुमार"
 

Wednesday, 27 January 2016

दिल मेरा ख़ाक का ढेर हो गया



रोना छोड़ दिया अब मयखाने में जाता हूँ,
मैकदे में जाकर अपने सारे गम भूलाता हूँ
,
जब तेरी यादों के मौसम आते हैं
मैं जमके फिर जाम पे जाम लगता हूँ
,
भीड़ में भी कोई अपना नज़र नहीं आता,
अब दीवारों को मैं अपने किस्से सुनाता हूँ
,
रौशनी में तेरी तस्वीर से बाते होती हैं
अंधेरों में तेरे नाम की आवाज़े लगाता हूँ
,
दिल मेरा ख़ाक का ढेर हो गया ‘प्रवेश’
अब अपनी राख को हवाओं में उडाता हूँ
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Tuesday, 26 January 2016

तू होती गर पास



मर ना सके, जिंदा भी रह ना सके
हाले-दिल अपना हम किसी से कह ना सके,
बज्मों में मुस्कुराते हुए दिन बिता दिए
मगर रातों में हिज्र के गम सह न सके
,
तू होती गर पास तो नींद आ जाती हमें
तेरे बिना मगर हम कभी भी सो न सके
,
अपने दर्द को दबा के रख लिया सीने में
तुझे खुश देखा तो अपने गम पे रो ना सके
,
एक उम्मीद है अब भी तेरे लौट आने की,
बस इसी इन्तजार में हम मौत के भी हो ना सके
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Friday, 22 January 2016

ये इश्क़ की राह है सनम बहुत पथरीली



अश्कों की बूंदों से दिल की जमीं हो गई गीली,
ये इश्क़ की राह है सनम बहुत पथरीली
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दिल से दिल मिला तो सारे रिश्ते छूट गए
दुनिया भर की कसमे और सारे बंधन टूट गए,
दूर से देखी थी ये दुनिया तब थी ये चमकीली,
अश्कों की बूंदों से दिल की जमीं हो गई गीली |
अब टूट चुके हैं और बस तन्हा रहते हैं,
उल्फ़त की सजा में फुरकते-गम सहते हैं,
हिज्र का मौसम रहता है नहीं होती यहाँ तबदीली...
अश्कों की बूंदों से दिल की जमीं हो गई गीली |

Thursday, 21 January 2016

शुक्रिया दोस्त ! शुक्रिया सपने !



        सूरज आग उगल रहा था | दूर तक खाली मैदान, कहीं कुछ नहीं, बस उस मैदान के बीच में, मैं और एक सफ़ेद रंग का घोड़ा | घोड़ा ना जाने कहाँ से आया और मेरे पास आकर खड़ा हो गया | मुझे तो घुड़सवारी आती भी ना थी | हो सकता है, उसे उस खाली मैदान में मेरे सिवा कोई दिखाई नहीं दिया होगा | बस फिर क्या था, जहाँ मैं जाता मेरे साथ हो लेता | मैंने रुक कर उसकी तरफ देखा | शायद मेरी तरह वो भी अपने अंदर के खालीपन और तन्हाई के राक्षस से लड़ रहा था, तभी तो वहाँ पहुँच गया था |
      अचानक, सूरज ने अपनी किरनें हम दोनों पर केन्द्रित कर दी, जैसे अँधेरे कमरे में टोर्च की रौशनी से कुछ ढूंढने के लिए की जाती है | मगर वो हमारे अन्दर क्या ढूंढ रहा था, ये क्या ! उसकी आग हमारे थोड़े से गीले गले को भी सुखाने लगी | मेरी और घोड़े की नज़रें मिली, और हम दोनों, मैं उसके ऊपर, सूरज को पीठ दिखा कर भाग खड़े हुए | हम बेतहाशा भागे जा रहे थे, शायद पानी की तालाश में, शायद जंगल की तालाश में, तन्हाई के राक्षस से दूर |
      अचानक, मैदान ख़त्म हो गया, सामने से पानी का समुंद्र बहा चला आ रहा था | हम दोनों परेशान हुए, मैदान से भाग कर आये तो रुसवाई के समुंद्र ने घेर लिया | ये घोड़ा तो बड़ा बेरहम निकला, मुझे पटक कर अकेला भाग खड़ा हुआ और उसके हिस्से का मैदान और समुंद्र भी मेरे हिस्से आ गया |
      मैं कुछ सोचता उससे पहले प्यास से मेरे प्राण सूखने लग गए, मेरी चेतना जाती रही | मैं बेहोश, समुंद्र के साथ बहता रहा | वो कभी मुझे जोर का धक्का मारता, कभी हवा में उछाल देता | एक मैं था, जो होश में ना आता था | आख़िर, मरे हुए को कोई कब तक मारे, समुंद्र भी मुझे अकेला छोड़ कर चला गया |
      ना मैदान, ना समुंद्र, ना घोड़ा | मेरी चेतना लौटी तो मैं अकेला छोटे-छोटे, नर्म, गीले घास में पड़ा हुआ था | मुझे कोई दूर से मेरी ओर आता दिखाई दिया | उसकी आकृति धुंधली थी मगर उसके हाथ में कुछ सामान था | वो नजदीक आया, उसने मुझे सहारा देकर उठाया और अपने साथ लेकर चल दिया |
      उसका चेहरा साफ-साफ तो नहीं दिखाई दिया, मगर कोई अपना सा लगा, सो मैंने उसे कुछ नहीं कहा और उसके साथ-साथ चलता रहा | थोड़ी देर बाद उसने मुझे अपने सामान से निकालकर पानी दिया | पानी की दो बूँद मेरे अन्दर जाते ही, मेरा खाली मैदान हरा होने लगा, मेरे अन्दर का राक्षस डूबने के डर से चिल्लाने लगा | मैंने जल्दी से एक बड़ा घूँट पानी का पी लिया | मुझे साफ सा दिखने लगा | वो अपना, मुझे मेरे एक दोस्त जैसा लगा | मगर मैं उससे नाम पूछता, उसके साथ लंच करता जोकि उसके सामान में था, मुझे यकीन था कि उसमे खाना ही था, मगर उससे पहले ही सपना टूट गया | शायद वो दोस्त तुम थे ‘नवीन’ | खैर, शुक्रिया दोस्त ! शुक्रिया सपने !    
Writer  -  प्रवेश कुमार