शरीर भी कांच जैसा पारदर्शी हो सकता है।
अगर हम अपने शरीर में पीछे लौंटें तो प्रत्येक व्यक्ति
के शरीर में इस जगत का पूरा इतिहास छिपा है। यह जगत पहले दिन बना होगा, उस दिन भी आपके शरीर का
कुछ हिस्सा मौजूद था; वही
विकसित होते आपका शरीर हुआ है। एक छोटे से बीज-कोष में इस अस्तित्व की सारी कथा
छिपी है; वह
आपका नहीं है, उसकी
लंबी परंपरा है। वह बीज-कोष न मालूम कितने मनुष्यों से, न मालूम कितने पशुओं से, न मालूम कितने पौधों से, न मालूम कितने खनिजों
से यात्रा करता हुआ आप तक आया है। वह आपकी पहली पर्त है; उस पर्त को ऋषि अन्नकोष
कहते हैं। अन्नकोष इसलिए कहते हैं...कि उसके निर्माण की जो प्रक्रिया है वह भोजन
से होती है; वह
बनता है भोजन से।
प्रत्येक व्यक्ति का शरीर सात साल में बदल जाता है। सभी
कुछ बदल जाता है--हड्डी, मांस, मज्जा-सभी कुछ बदल जाती
है; एक
आदमी सत्तर साल जीता है तो दस बार उसके पूरे शरीर का रूपांतरण हो जाता है। रोज आप
जो भोजन ले रहे हैं, वह
आपके शरीर को बनाता है; और
रोज आप अपने शरीर से मृत शरीर को बाहर फेंक रहे हैं। जब हम कहते हैं कि फलां
व्यक्ति का देहावसान हो गया, तो हम अंतिम देहावसान
को कहते हैं...जब उसकी आत्मा शरीर को छोड़ देती है।
वैसे व्यक्ति का देहावसान रोज हो रहा है, व्यक्ति का शरीर रोज मर
रहा है; आपका
शरीर मरे हुऐ हिस्से को रोज बाहर फेंक रहा है। नाखून आप काटते हैं, दर्द नहीं होता, क्योंकि नाखून आपके
शरीर का मरा हुआ हिस्सा है। बाल आप काटते हैं, पीड़ा नहीं होती, क्योंकि बाल आपके शरीर
के मरे हुए कोष हैं। अगर बाल आपके शरीर के जीवित हिस्से हैं तो काटने से पीड़ा
होगी।
आपका शरीर रोज अपने से बाहर फेंक रहा है...एक मजे की बात
है कि अक्सर कब्र में मुर्दे के बाल और नाखून बढ़ जाते हैं; क्योंकि नाखून और बाल
का जिंदगी से कुछ लेना-देना नहीं, मुर्दे के भी बढ़ सकते
हैं; वे
मरे हुए हिस्से हैं...वे मरे हुए हिस्से हैं, वे अपनी प्रक्रिया जारी
रख सकते हैं।
भोजन आपके शरीर को रोज नया शरीर दे रहा है, और आपके शरीर से मुर्दा
शरीर रोज बाहर फेंका जा रहा है। यह सतत प्रक्रिया है। इसलिए शरीर को अन्नमयकोश कहा
है, क्योंकि
वह अन्न से ही निर्मित होता है।
और इसलिए बहुत कुछ निर्भर करेगा कि आप कैसा भोजन ले रहे
हैं। इस पर बहुत कुछ निर्भर करेगा। आपका आहार सिर्फ जीवन चलाऊ नहीं है, वह आपके व्यक्तित्व की
पहली पर्त निर्मित करता है। और उस पर्त के ऊपर बहुत कुछ निर्भर करेगा कि आप भीतर
यात्रा कर सकते हैं या नहीं कर सकते हैं; क्योंकि सभी भोजन एक
जैसा नहीं है।
कुछ भोजन हैं जो आपको भीतर प्रवेश करने ही न देंगे, जो आपको बाहर ही
दौड़ाते रहेंगे; कुछ
भोजन हैं जो आपके भीतर चैतन्य को जन्मने ही न देंगे, क्योंकि वे आपको बेहोश
ही करते रहेंगे; कुछ
भोजन हैं जो आपको कभी शांत न होने देंगे, क्योंकि उस भोजन की
प्रक्रिया में ही आपके शरीर में एक रेस्टलेसनेस, एक बेचैनी पैदा हो जाती
है। रुग्ण भोजन हैं, स्वस्थ
भोजन हैं, शुद्ध
भोजन हैं, अशुद्ध
भोजन हैं।
शुद्ध भोजन उसे कहा गया है, जिससे आपका शरीर अंतर
की यात्रा में बाधा न दे-बस; और कोई अर्थ नहीं है।
शुद्ध भोजन से सिर्फ इतना ही अर्थ है कि आपका शरीर आपकी अंतर्यात्रा में बाधा न
बने।
एक आदमी अपने घर की दीवालें ठोस पत्थर से बना सकता है।
कोई आदमी अपने घर की दीवालें कांच से भी बना सकता है; लेकिन कांच पारदर्शी है, बाहर खड़े होकर भी भीतर
का दिखाई पड़ता है। ठोस पत्थर की भी दीवाल बन जाती है, तब बाहर खड़े होकर भीतर
का दिखाई नहीं पड़ता है।
शरीर भी कांच जैसा पारदर्शी हो सकता है। उस भोजन का नाम
शुद्ध भोजन है जो शरीर को पारदर्शी, ट्रान्सपैरेंट बना
दे...कि आप बाहर भी चलते रहें तो भी भीतर की झलक आती रहे। शरीर को आप ऐसी दीवाल भी
बना सकते हैं कि भीतर जाने का ख़याल ही भूल जाये, भीतर की झलक ही मिलनी
बंद हो जाये।
ओशो: सर्वसार उपनिषद #6
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