Wednesday, 6 January 2016

याद आते हैं अब वो दिन सुन्हेरे

मोहब्बत से जब हम दूर थे ठहरे,
याद आते हैं अब वो दिन सुन्हेरे
कज़ा आई थी भेष बदलकर सामने,
मुझे लगे बहूत हसीन वो चेहरे
प्यार की जंजीरों ने जकड़ा हमको,
इश्क़ के हमपर लगने लग गए पहरे
रुसवा जब से हमें वो करके गयी,
पड़े हुए हैं हम तबसे बिखरे बिखरे
अब हिज्र का मौसम रहता है,
आँखों से बरसते रहते हैं फव्वारे
आशियाना मेरा पहले रहता था रोशन,
अब मेरे घर में बस रहते हैं अँधेरे
बस ये शबे-गम रो कर बिता लूँ,
आ जाएगी मौत मुझको कल सवेरे
अपने दम से जिन्दा है आज ‘प्रवेश’,
कल चार कांधों के चाहियेंगे सहा
रे |

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