कभी कुछ दिन ऐसे भी गुजारे जाते हैं,
फूलों में हाथ डालो काँटे हाथ आते हैं।
गया था मन्दिर में दुआओं की ख़ातिर मैं,
वहाँ भी उपदेशक सिर्फ किस्से सुनाते हैं।
अब सोचता हूँ किस सिम्त किस दिशा जाऊँ,
जहाँ जाता हूँ लोग मुझे अलग छांटते हैं।
मैं खुद ही लुट जाऊँगा कोई प्यार से तो बोले,
इस दुनिया के लोग अकड़ भी दिखाते हैं बलि भी मांगते हैं।
सियासत के खेल से बच सको जितना बचना "प्रवेश",
इसमें आदमी से ही आदमी को काटते हैं।
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