Thursday 31 March 2016

मगर खुद कभी झाँककर आईना नहीं देखा


जब से उसको देखा कोई और मंजर नहीं देखा,
साहिल पे रहा मगर मैंने समंदर नहीं देखा।
ढूंढता रहा वो हमेशा मेरी ही आँख में तिनका,
मगर खुद कभी झाँककर आईना नहीं देखा।
उसने आजमा कर बहुत देखा मुझे, मगर ,
अच्छाइयाँ भूला दी अच्छाइयों के साथ नहीं देखा।
वो तैरना जानता था नदी तो पार कर दी उसने,
मगर ऊपर ऊपर ही रहा गहराइयों में उतरकर नहीं देखा।
कैसे कहेगा वो कि दुनिया में हैं खुशियाँ बहुत ,
उसने जिन्दगी में कभी तितली के पीछे भागकर नहीं देखा।
कांधे पे हाथ रखने से क्या होगा कोई मुझसे पूछे ,
वो क्या जाने इश्क़ जिसने रातों में जागकर नहीं देखा।
ये मेरी दिल्लगी थी कि मैं उसे अपना कहता रहा,
मगर एक उसकी दिल्लगी मुझे कभी अपना कहकर नहीं देखा।

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