Thursday, 10 March 2016

दिल तो कब का नीलाम हो चूका



मैंने यहाँ क्या क्या नहीं होते देखा
जो मेरा था किसी और का होते देखा |
हँसता रहता था जो महफिलों में हरदम
तनहा अकेले में उसे टूटकर रोते देखा |
जो बच बचकर निकलता था हरेक राह से
उसको भी मैंने हादसों का शिकार होते देखा |
दिल तो कब का नीलाम हो चूका था उसका
आज उसकी जान को कतरा-कतरा निकलते देखा |
जो रातों में भी सोया ना करता था कभी
आज उसको कब्र में आराम से सोते देखा |
“प्रवेश कुमार”

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