एक उम्र गुज़ार दी हमने तनहाईयों में
बची खुची अब गुजर रही हैं रुसवाईयों में।
गम की सिसकियाँ सुनता भी कोई तो कैसे
दर्द की आवाज़ दब गई शहनाईयों में |
सारे शहर की रौनक जिसे बहला न सकी
खुश है वो शख्स आज मगर वीरानीयों में।
रहने दो मुझे अँधेरों में, मैं यही अच्छा हूँ
डर लगता है अब मुझे शहर की रंगीनियों में।
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