Sunday, 14 February 2016

और शायद यही तो जिन्दगी है


काम की तलाश में अनपेक्षित भटकते हुए
मैं सोचता हूँ कि जब पढ़ता था तब अच्छा था,
लेकिन तब दिलों में इच्छा थी
बड़ा होने की काम करने की।
हर वक़्त हर पल इंसान गुम है
भविष्य की सोच में भूतकाल की ओट में।
और शायद यही तो जिन्दगी है,
मगर यही है जिन्दगी तो वर्तमान क्या है
वर्तमान में जीना क्या है
लेकिन कहाँ है समय वर्तमान के लिए
सब तो भविष्य और भूतकाल कब्जा चुका है
और अब वर्तमान में आदमी, आदमी नहीं है
एक पुतला है सिर्फ पुतला सांस लेता हुआ
अंदर कहीं गुम वही सोच कल और कल आज कहीं गुम । "
"प्रवेश कुमार"

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