Sunday, 8 November 2015

फिर भी वो पेट की खातिर

    वो बुढ़िया


एक बुढ़िया सड़क किनारे बैठी
आधे फाटे कपड़ो में लिपटी
टुटा-फूटा चश्मा उसकी आँखों पर
पल-पल में सरकता वो नाक पर
मिट्टी में मिले कुछ चनो को
अपने कांपते हाथों से बीनती है,
अपने पेट की भूख की ख़ातिर
कुत्तों से भी रोटी छीनती है................
वो बुढ़िया..........................................
ऐसा गरीबी का साया मंडराया
मजबूरी का तमाचा खाया,
चेहरा धुप में ऐसा झलसाया
के वक़्त से पहले झुर्रियां ले आया.
वो बुढ़िया...........................................
राह चलते मुसाफिरों को
इक आस से ताकती है,
पेट में रखा जिसे नों महीने
आज उस औलाद को कोसती है.
जिसके खातिर ये हालत हो गई,
वो औलाद उसके लिए नहीं सोचती है.
वो बुढ़िया............................................
मौत से उसको डर नही लगता
और मौत को सोचती भी है,
भूखी बेचारी कब तक जिए
ये सोच सोचकर रोती भी है.
वो बुढ़िया.........................................
जो सड़क किनारे बैठकर
अतीत को अपने सोचती है,
खड्डे वाली सड़कों पर
भविष्य अपना खोजती है.
वो बुढ़िया ......................................
जिसकी औलाद उसको भूल चुकी है,
वो ना उनको भूल सकी है,
निर्दयी मदारी के आगे जैसे
एक मजबूर बंदरिया खड़ी है,
वो बुढ़िया..........................................
जीभ जिसकी अब लडखडाती है
रूह भी गरीबी से डर जाती है,
हाथ पैरों ने साथ छोड़ दिया,
फिर भी वो पेट की खातिर
सारी हिम्मत बटोरकर
गरीबी से लड़ जाती है,
अब भी वो भूख की खातिर
कुत्तों से रोटी छिनती है.
वो बुढ़िया ......................................
सड़कों से कूड़ा बीनती है
हर इक सायें में उसको
अपनी परछाई लगती है,
गरीबी की इस हालत में
उसे ज़िन्दगी भी पराई लगती है

वो बुढ़िया ......................................

Parvesh Kumar

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