Friday, 6 November 2015

छोड़ देते हम नौकरी कब की


ज़िन्दगी बन गयी है जैसे एक सफ़र,
घर से दफ्तर, दफ्तर से घर.
जैसे घर से हो गए हों बेघर.
अपनों के लिए वक़्त निकाले,
इतना भी वक़्त हमारे पास नहीं,
किन किन हालातों से गुजरते है हम
इस बात का किसी को एहसास नहीं,
घर पर इतना समय मिलता है
खाने पीने और सो जाने का,
दफ्तर में इतना दर्द मिलता है
वक़्त ही नहीं मिलता रोने का.
कहाँ पर जाएँ किसको सुनाये
कौन मालिक कर्मचारी की सुनेगा,
पलक झपकने में भी देर लगती है,
वो तो पल में भी हिसाब कर देगा.
गरीबी है यहाँ मज़बूरी सबकी
अगर इसे कोई समझ लेता तो,
छोड़ देते हम नौकरी कब की,
अगर पापी पेट ना होता तो


Parvesh Kumar

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