Tuesday, 10 November 2015

कभी बहन, कभी बीवी बनकर हर कदम उसे संभाला है


देखा मैंने हर द्वार पर पुरुष के नाम जड़े हुए,
ऐ औरत तेरे अधिकार हैं कहाँ पड़े हुए,
क्यों तेरा कोई अधिकार नहीं है
क्यों तेरा कोई आधार नहीं है |
माँ बनकर तूने पुरुष को अपने प्राण-पुष्पों से पाला है,
कभी बहन, कभी बीवी बनकर हर कदम उसे संभाला है |
तेरे बिना नहीं संसार की कोई कल्पना है
सुखी आँखें है, ना आँसू, ना प्यार, ना सपना है |
चार दीवारों से निकली है आज़ाद तो हुई है मगर,
‘लड़का लड़की एक समान’ नारों में बंधी है
अभी पूरी आज़ाद कहाँ हुई है |
संस्कृति की नक़ल हुई मगर सोच नहीं बदली,
संशय में हूँ ये समाज असली है या नकली |
बदलाव नियम है इसलिए उम्मीद अभी जिंदा है,
एक दिन आज़ाद हो जायेगा इस पिंजरे में जो परिंदा है |

Parvesh Kumar 




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