Sunday, 22 November 2015

कागज़ की पत्तियों का हर कोई पुजारी है

नफरत ही नफरत से छिक सा गया हूँ मैं,
सुन-सुन कर सबकी बातें थक सा गया हूँ मैं.
हर एक चेहरे ने मुझे घुर कर देखा है,
कसूर मेरा है क्या मेरे हाथ में कौनसी रेखा है.
रोटी भी अपनी नहीं आसमान ही घरोंदा है,
पत्थर की मूरत से मांगी हुई दुआ में जिंदा हैं.
पैसे वालों के घर जाकर थोकर ही खाई है,
दर-दर जाकर मैंने ये ज़िन्दगी कमाई है.
कागज़ की पत्तियों का हर कोई पुजारी है,
दौलत की इस दुनिया में सिर्फ मतलब की यारी है.
पत्थर की आँखों से मैंने अश्क बहाए हैं,
जो खुशियाँ थी कल मेरी आज वो जलवे पराये हैं.
अपनी सूरत देखने को शीशे की अलमारी खोली है,
मुक्ति पाने की चाहत में मैंने हरेक कब्र टटोली है


Parvesh Kumar 

No comments:

Post a Comment